बुधवार, 19 नवंबर 2008

मोटेराम जी शास्त्री

    पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नही जानता! आप अधिकारियों का रूख देखकर काम
करते है। स्वदेशी आन्दोलन के दिनों मे अपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था।
स्वराज्य आन्दोलन के दिनों मे भी अपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी।
मगर जब इतनी उछल-कूद पर उनकी तकदीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन कार्य से पिण्ड
न छूटा, तो अन्त मे अपनी एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोलेइन बूढ़े
तोतों को रटाते-रटातें मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है। इतने दिनों विद्या-दान देने
का क्याफल मिला जो और आगे कुछ मिलने की आशा करूं।
धर्मपत्न ने चिन्तित होकर
कहाभोजनों का भी तो कोई सहारा चाहिए।
मोटेरामतुम्हें जब देखो, पेट ही की फ्रिक
पड़ी रहती है। कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हो, और चाहे
कोई निन्दा करें, पर मै परोसा लिये बिना नहीं आता हूं। आज ही सब यजमान मरे जाते है? मगर जन्म भर पेट ही खिलाया तो क्या किया। संसार का कुछ सुख भी तो भोगना चाहिए। मैने
वैद्य बनने का निश्चय किया है।

स्त्री ने आश्चर्य से कहावैद्य बनोगे, कुछ
वैद्यकी पढ़ी भी है?
मोटेवैद्यक पढने से कुछ नही होता, संसार मे विद्या का इतना
महत्व नही जितना बुद्धि का, दो-चार सीधे-सादे लटके है, बस और कुछ नही। आज ही अपने
नाम के आगे भिष्गाचार्य बढ़ा लूंगा, कौन पूछने आता है, तुम भिष्गाचार्य हो या नही।
किसी को क्या गरज पड़ी है जो मेरी परिक्षा लेता फिरे। एक मोटा-सा साइनबोर्ड बनवा
लूंगा। उस पर शब्द लिखें होगेयहा स्त्री पुरूषों के गुप्त रोगों की चिकित्सा विशेष
रूप से की जाती है। दो-चार पैसे का हउ़-बहेड़ा-आवंला कुट छानकर रख लूंगा। बस, इस
काम के लिए इतना सामान पर्याप्त है। हां, समाचारपत्रों मे विज्ञापन दूंगा और नोटिस
बंटवाऊंगा। उसमें लंका, मद्रास, रंगून, कराची आदि दूरस्थ स्थानों के सज्जनों की
चिटिठयां दर्ज की जाएंगी। ये मेरे चिकित्सा-कौशल के साक्षी होगें जनता को क्या पड़ी
है कि वह इस बात का पता लगाती फिरे कि उन स्थानों मे इन नामों के मनुष्य रहते भी
है, या नहीं फिर देखों वैद्य की कैसी चलती है।

स्त्रीलेकिन बिना जाने-बूझ दवा
दोगे, तो फायदा क्या करेगी?
मोटेफायदा न करेगी, मेरी बला से। वैद्य का काम दवा
देना है, वह मृत्यु को परस्त करने का ठेका नही लेता, और फिर जितने आदमी बीमार पड़ते
है, सभी तो नही मर जाते। मेरा यह कहना है कि जिन्हें कोई औषधि नही दी जाती, वे
विकार शान्त हो जाने पर ही अच्छे हो जाते है। वैद्यों को बिना मांगे यश मिलता है।
पाँच रोगियों मे एक भी अच्छा हो गया, तो उसका यश मुझे अवश्य ही मिलेगा। शेष चार जो
मर गये, वे मेरी निन्दा करने थोडे ही आवेगें। मैने बहुत विचार करके देख लिया, इससे
अच्छा कोई काम नही है। लेख लिखना मुझे आता ही है, कवित्त बना ही लेता हूं, पत्रों
मे आयुर्वेद-महत्व पर दो-चार लेख लिख दूंगा, उनमें जहां-तहां दो-चार कवित्त भी जोड़
दूंगा और लिखूंगा भी जरा चटपटी भाषा मे । फिर देखों कितने उल्लू फसते है यह न समझो
कि मै इतने दिनो केवल बूढे तोते ही रटाता रहा हूं। मै नगर के सफल वैद्यो की चालों
का अवलोकन करता रहा हू और इतने दिनों के बाद मुझे उनकी सफलता के मूल-मंत्र का ज्ञान
हुआ है। ईश्वर ने चाहा तो एक दिन तुम सिर से पांव तक सोने से लदी होगी।
स्त्री
ने अपने मनोल्लास को दबाते हुए कहामै इस उम्र मे भला क्या गहने पहनूंगी, न अब वह
अभिलाषा ही है, पर यह तो बताओं कि तुम्हें दवाएं बनानी भी तो नही आती, कैसे बनाओगे, रस कैसे बनेगें, दवाओ को पहचानते भी तो नही हो।
मोटेप्रिये! तुम वास्तव मे बड़ी
मूर्ख हो। अरे वैद्यो के लिए इन बातों मे से एक भी आवश्यकता नही, वैद्य की चुटकी की
राख ही रस है, भस्म है, रसायन है, बस आवश्यकता है कुछ ठाट-बाट की। एक बड़ा-सा कमरा
चाहिए उसमें एक दरी हो, ताखों पर दस-पांच शीशीयां बोतल हो। इसके सिवा और कोई चीज
दरकार नही, और सब कुछ बुद्धि आप ही आप कर लेती है। मेरे साहित्य-मिश्रित लेखों का
बड़ा प्रभाव पड़ेगा, तुम देख लेना। अलंकारो का मुझे कितना ज्ञान है, यह तो तुम
जानती ही हो। आज इस भूमण्डल पर मुझे ऐसा कोई नही दिखता जो अलंकारो के विषय मे मुझसे
पेश पा सके। आखिर इतने दिनों घास तो नही खोदी है! दस-पाचं आदमी तो कवि-चर्चा के
नाते ही मेरे यहां आया जाया करेगें। बस, वही मेरे दल्लाह होगें। उन्ही की मार्फत
मेरे पास रोगी आवेगें। मै आयुर्वेद-ज्ञान के बल पर नही नायिका-ज्ञान के बल पर
धड़ल्ले से वैद्यक करूंगा, तुम देखती तो जाओ।
स्त्री ने अविश्वास के भाव से
कहामुझे तो डर लगता है कि कही यह विद्यार्थी भी तुम्हारे हाथ से न जाए। न इधर के
रहो ने उधर के। तुम्हारे भाग्य मे तो लड़के पढ़ाना लिखा है, और चारों ओर से ठोकर
खाकर फिर तुम्हें वी तोते रटाने पडेगें।
मोटेतुम्हें मेरी योग्यता पर विश्वास
क्यों नही आता?
स्त्रीइसलिए कि तुम वहां भी धुर्तता करोगे। मै तुम्हारी
धूर्तता से चिढ़ती हूं। तुम जो कुछ नही हो और नही हो सकते,वह क्यो बनना चाहते हो? तुम लीडर न बन सके, न बन सके, सिर पटककर रह गये। तुम्हारी धूर्तता ही फलीभूत होती
है और इसी से मुझे चिढ़ है। मै चाहती हूं कि तुम भले आदमी बनकर रहो। निष्कपट जीवन
व्यतीत करो। मगर तुम मेरी बात कब सुनते हो?
मोटेआखिर मेरा नायिका-ज्ञान कब काम
आवेगा?
स्त्रीकिसी रईस की मुसाहिबी क्यो नही कर लेते? जहां दो-चार सुन्दर
कवित्त सुना दोगें। वह खुश हो जाएगा और कुछ न कुछ दे ही मारेगा। वैद्यक का ढोंग
क्यों रचते हों!
मोटेमुझे ऐसे-ऐसे गुर मालूम है जो वैद्यो के बाप-दादों को भी न
मालूम होगे। और सभी वैद्य एक-एक, दो-दो रूपये पर मारे-मारे फिरते है, मै अपनी फीस
पांच रूपये रक्खूगा, उस पर सवारी का किराया अलग। लोग यही समझेगें कि यह कोई बडे
वैद्य है नही तो इतनी फीस क्यों होती?
स्त्री को अबकी कुछ विश्वास आया बोलीइतनी
देर मे तुमने एक बात मतलब की कही है। मगर यह समझ लो, यहां तुम्हारा रंग न जमेगा, किसी दूसरे शहर को चलना पड़ेगा।
मोटे—(हंसकर) क्या मै इतना भी नही जानता। लखनऊ
मे अडडा जमेगा अपना। साल-भर मे वह धाक बांध दू कि सारे वैद्य गर्द हो जाएं। मुझे और
भी कितने ही मन्त्र आते है। मै रोगी को दो-तीन बार देखे बिना उसकी चिकित्सा ही न
करूंगा। कहूंगा, मै जब तक रोगी की प्रकृति को भली भांति पहचान न लूं, उसकी दवा नही
कर सकता। बोलो, कैसी रहेगी?
स्त्री की बांछे खिल गई, बोलीअब मै तुम्हे मान गई, अवश्य चलेगी तुम्हारी वैद्यकी, अब मुझे कोई संदेह नही रहा। मगर गरीबों के साथ यह
मंत्र न चलाना नही तो धोखा खाओगे।
साल भर गुजर गया।

भिषगाचार्य
पण्डित मोटेराम जी शास्त्री की लखनऊ मे घूम मच गई। अलंकारों का ज्ञान तो उन्हे था
ही, कुछ गा-बजा भी लेते थे। उस पर गुप्त रोगो के विशेषज्ञ, रसिको के भाग्य जागें।
पण्डित जी उन्हें कवित्त सुनाते, हंसाते, और बलकारक औषधियां खिलाते, और वह रईसों मे, जिन्हें पुष्टिकारक औषधियों की विशेष चाह रहती है, उनकी तारीफों के पुल बांधते। साल
ही भर मे वैद्यजी का वह रंग जमा, कि बायद व शायदं गुप्त रोगों के चिकित्सक लखनऊ मे
एकमात्र वही थे। गुप्त रूप से चिकित्सा भी करते। विलासिनी विधवारानियों और शौकीन
अदूरदर्शी रईसों मे आपकी खूब पूजा होने लगी। किसी को अपने सामने समझते ही न
थे।
मगर स्त्री उन्हे बराबर समझाया करती कि रानियों के झमेलें मे न फसों, नही एक
दिन पछताओगे।
    मगर भावी तो होकर ही रहती है, कोई लाख समझाये-बुझाये। पंडितजी के
उपासको मे बिड़हल की रानी भी थी। राजा साहब का स्वर्गवास हो चुका था, रानी साहिबा न
जाने किस जीर्ण रोग से ग्रस्त थी। पण्डितजी उनके यहां दिन मे पांच-पाचं बार जाते।
रानी साहिबा उन्हें एक क्षण के लिए भी देर हो जाती तो बेचैन हो जाती, एक मोटर नित्य
उनके द्वार पर खड़ी रहती थी। अब पण्डित जी ने खूब केचुल बदली थी। तंजेब की अचकन
पहनते, बनारसी साफा बाधते और पम्प जूता डाटते थे। मित्रगण भी उनके साथ मोटर पर
बैठकर दनदनाया करते थे। कई मित्रों को रानी सहिबा के दरबार मे नौकर रखा दिया। रानी
साहिबा भला अपने मसीहा की बात कैसी टालती।
मगर चर्खे जफाकार और ही षययन्त्र रच
रहा था।

    एक दिन पण्डितजी रानी साहिबा की गोरी-गोरी कलाइयों पर एक हाथ रखे नब्ज देख
रहे थे, और दूसरे हाथ से उनके हृदय की गति की परिक्षा कर रहे थे कि इतने मे कई आदमी
सोटै लिए हुए कमरे मे घुस आये और पण्डितजी पर टूट पड़े। रानी भागकर दूसरे कमरे की
शरण ली और किवाड़ बन्द कर लिए। पण्डितजी पर बेभाव पड़ने लगे। यों तो पण्डितजी भी
दमखम के आदमी थे, एक गुप्ती संदैव साथ रखते थे। पर जब धोखे मे कई आदमियों ने धर
दबाया तो क्या करते? कभी इसका पैकर पकड़ते कभी उसका। हाय-हाय! का शब्द मुंह से निकल
रहा था पर उन बेरहमों को उन पर जरा भी दया न आती थी, एक आदमी ने एक लात जमाकर कहाइस
दुष्ट की नाक काट लो।
दूसरा बोलाइसके मुंह मे कलिख और चूना लगाकर छोड़
दो।
तीसराक्यों वैद्यजी महाराज, बोलो क्या मंजूर है? नाक कटवाओगे या मुंह मे
कालिख लगवाओगें?
पण्डितभूलकर भी नही सरकार। हाय मर गया!

दूसराआज ही लखनऊ
से रफरैट हो जाओं नही तो बुरा होगा।
पणिडतसरकार मै आज ही चला जाऊगां। जनेऊ की
शपथ खाकर कहता हूं। आप यहां मेरी सूरत न देखेगें।
तीसराअच्छा भाई, सब कोई इसे
पांच-पाचं लाते लगाकर छोड़ दो।
पण्डितअरे सरकार, मर जाऊगां, दया
करो
चौथातुम जैसे पाखंडियो का मर जाना ही अच्छा है। हां तो शुरू हो।

पंचलत्ती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजें आने लगी। मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़
रही है। हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज निकल आती थी, मानों उसकी प्रतिध्वनी
हो।
पंचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला
और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया, चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रात:काल से पहले भाग
खड़े होना, नही तो और ही इलाज किया जाएगा।
    मोटेराम जी लंगड़ाते, कराहते, लकड़ी टेकते घर मे गए और धम से गिर पड़े चारपाई पर गिर पडे। स्त्री ने
घबराकर पूछाकैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय यह तुम्हारा चेहरा कैसा
हो गया!
मोटेहाय भगवान, मर गया।
स्त्रीकहां दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबड़ी न खाओं। लवणभास्कर ले आऊं?
मोटेहाय, दुष्टों ने मार डाला। उसी
चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई । मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल
दिया।
स्त्रीतो यह कहो कि पिटकर आये हो। हां, पिटे हो। अच्छा हुआ। हो तुम लातो
ही के देवता। कहती थी कि रानी के यहां मत आया-जाया करो। मगर तुम कब सुनते
थे।
मोटेहाय, हाय! रांड, तुझे भी इसी दम कोसने की सूझी। मेरा तो बुरा हाल है और
तू कोस रही है। किसी से कह दे, ठेला-वेला लावे, रातो-रात लखनऊ से भाग जाना है। नही
तो सबेरे प्राण न बचेगें।
स्त्रीनही, अभी तुम्हारा पेट नही भरा। अभी कुछ दिन और
यहां की हवा खाओ! कैसे मजे से लड़के पढ़ाते थे, हां नही तो वैद्य बनने की सूझी। बहुत
अच्छा हुआ, अब उम्र भर न भूलोगे। रानी कहां थी कि तुम पिटते रहे और उसने तुम्मारी
रक्षा न की।

पण्डितहाय, हाय वह चुडैल तो भाग गई। उसी के कारण । क्या जानता था
कि यह हाल होगा, नहीं ता उसकी चिकित्सा ही क्यों करता?
स्त्रीहो तुम तकदीर के
खोटे। कैसी वैद्यकी चल गई थी। मगर तुम्हारी करतूतों ने सत्यनाश मार दिया। आखिर फिर
वही पढौनी करना पड़ी। हो तकदीर के खोटे।
प्रात:काल मोटेराम जी के द्वार पर ठेला
खड़ा था और उस पर असबाब लद रहा था। मित्रो मे एक भी नजर न आता था। पण्डित जी पड़े
कराह रहे थे ओर स्त्री सामान लदवा रही थी।